रास्ता अपना

Wednesday, 7 October 2015

राह का रोड़ा

आज कुछ ऐसे उदाहरण से आपको रुबरु कराऊँगा जिसे मैंने मेट्रोपॉलिट्न सिटी दिल्ली में रहकर अनुभव किया|
           ध्यान रखना मैं एक छोटी सी बात बता रहा हुं लेकिन इससे आपके जीवन की बड़ी से बड़ी समस्या का हल यूं ही निकल आयेगी|
        मैंने देखा कि मॉनसून सीजन में दिल्ली की औसत तापमान 18°C के ईर्द-गिर्द ही रहती है जबकि बिल्कुल इसी स्तर की तापमान विण्टर यानी ठण्डे में भी रहती है लेकिन क्यों हम किसी एक सीजन में थर्मल वियर तो दूसरे में रेन वियर पहनते हैं जबकि दोनों ही सीजन में तापमान लगभग बराबर हैं|
         वैग्यानिक कारण जो भी हो उसे उपेक्छित कर मैं बचपन से हमारे अंदर भरी गई सोच को उजागर करना चाह रहा हुं क्योंकि मम्मी ने कहा है कि बेटे ऐसे मत निकला कर ठण्ड लग जाएगा|ऐसे कपड़े मत पहन जब तु भीग जाऐगा तो सूखेगा नहीं|
               हमारे राह का असली रोड़ा तो यही है हमारे अंदर भरी गई बातें|दोस्तों ऐसे ही कई बुराईयां हमारे अंदर भरी हैं जिन्हें हमारे पूर्वज बगैर कोई तर्क किये अपनाते गये और हम को स्थानांतरित करते गये और यही बातें हमारी कल्चर भी बनीं|
     सो आपसे रिक्वेस्ट है कि जरा सा तार्किक रहें और  लाईफस्टाईल बदलें|
                          धन्यवाद
             प्रस्तुति:विवेक खेस्स

Wednesday, 30 September 2015

Vivekvaani

"Zindagi sirfnazdikiyo se nahi chalti kamabakht duriya bhi jruri hoti hai .......""

Tuesday, 17 February 2015

विवेविवेकवाणी 006

"है थी कितनी  आसान जिंदगी तेरी राहें,मुस्किलें खुद ही तौल कर खरीदा|
बहुत होने के बाद भी यह सोचता,,काश कुछ और मिला होता||

Sunday, 15 February 2015

RAAH ka SAATHI

                सतपथ नामक ब्राह्मण पड़ोस के गांव दान-दक्छिणा लेने जाने के लिए तैयार हो रहे थे और ऊधर उसकी मॉं चिंतित थी कि ऐसे सुनसान राह पर बेटे को अकेले  कैसे भेजूं??इसी ऊधेड़बुन में मॉं-बेटा सतपथ!!राहें सुनसान हैं फिर तु अकेले कैसे जाएगा?
सतपथ-मॉं अब मैं बच्चा तो रहा नहीं,तो फिर आप क्यों चिंतित हो?
मॉं-बेटा!फिर भी मेरे खातिर तुम किसी को साथ लेकर जाओ|
सतपथ-अपनी ऊंगली के नाखुन काटता हुआ कुछ देर बाद|अपनी कपूर की पोटली ऊठाते हुए कहता है-अम्मा!मुझे डर नहीं,अब मैं चला,कहकर निकलने लगा कि तभी अम्मा को एक तरकीब सुझा और उसने बेटे की कपूर की पोटली में एक केंकड़ा डाल दिया|
गॉंव घूमते-घूमते सतपथ थक हार कर घर की ओर बढ़ा|रास्ते में थकने पर वह पेड़ के नीचे छांव में सुस्ताने लगा चूंकि दक्छिणा काफी वजनी था सो सतपथ थक चुका था|और वह नींद की आगोश में चला गया|पेड़ पर से सांप उतरा और सांप ने पहले सतपथ के फेरे लगा ही रहे थे की कपूर की सुगंध सांप के नाक में पड़ी और वह कपूर की पोटली को खोला और देखते ही देखते केंकड़े ने काम तमाम कर दी|इतने में सतपथ की नींद खुली और वह आंख खुजा रहा था कि उसे कुछ गड़बड़ सा महसुस हुआ,गौर से देखा तो भौंचक रह गया|
    उसे अम्मा के सामने किये जिद की ख्याल आई और वह अम्मा की इसके बाद हर बात सुनने लगा|
Friends कैसे लगी story. ़कहानी की सार तो आपने ताड़ ही ली होगी?आवश्यकता है तो करने की|thanks to contribut me.

Tuesday, 10 February 2015

जीवन:सुख-दू:ख का संगम है

                   काफी पहले की बात है किसी गाँव में तबाही मचने के बाद सिर्फ दो लोग बचे थे|एक औरत एवं उसका नन्हां बच्चा|कुछ दिनों तक जैसे-तैसे सब ठीक चल रहा था कि बच्चा भी आहत होने के कारण भगवान को प्यारे हो गये|
      मम्मी बच्चे के लिए बिलखती रही पर क्या यहां तो कोई सांत्वाना देने वाला भी न बचा था आखिर हार कर उसने पड़ोस के किसी गांव में भगवान के शिष्य के होने की खबर लगीो|वह उनके पास सबेरे पहुंच गई|उसने अपनी दूख सुनाया|सुनने के बाद शिष्य ने एक रहस्यात्मक बात महिला से कही-बेटी तु इस संसार में कोई भी ऐसा परिवार ढुंढ़ कर ला जिसके यहां अब तक किसी की मृत्यु न हुई हो|यदि तुम्हें कोई ऐसा परिवार मिले तो वापस अवश्य आना जिससे कि मैं तेरे पुत्र को तेरे इच्छानुसार जीवित कर सकुं|वह ऐसे परिवार ढूंढ़ने चल पड़ी|एक परिवार से दूसरे परिवार पूछते रही और सभी के घर उसे यही जवाब मिलता कि-मेरे बेटे,पति,बच्चे का स्वर्गवास हो गया है|
    दरअसल कहानी का सार ये है कि एक न एक दिन सभी को जाना 

Saturday, 7 February 2015

मित्रता समानों में भली

                         प्रिय पाठक गण/बन्धुओ मेरे blog:http://www.vivekxess13.blogspot. com पर अपना बहुमूल्य समय invest करने के लिए मैं आपका सदैव आभारी रहुंगा|दरअसल मुझे blog create करने से पहले कुछ भी मालूम नहीं था जिसका खामियाजा आप सभी पाठकोॉ को उठाना पढ़ रहा हो तो I'm really sorry.कुछ दिनों बाद मैंने अपना personal domain name बनाने का फैसला किया है जो आपको blog address remember करे में easy होगी और तो और हमें browser पर too much long type नहीं करनी होगी|
                   कहानी पर आते हैं काफी पहले की बात है सियार और बगुले में गहरी मित्रता थी|बगुले से मित्रता करके सियार अपनी चालाकी स्वभाव भूल चुका था और दोनों मस्त enjoy, करते कभी सरोवर(तालाब) किनारे तो कभी नदिया तीरे|पर बगुला तो जल देख मचल उठता है और पानी में उतरते ही नन्हीं मछलियों का शिकार कर  अपना पेट भर लेता है और सियार तो मछली पकड़ नहीं सकता दरअसल सियार पानी में जा ही नहीं सकता और खाना न खाना तो दूर की बात ठहरी|ऐसे ही कई दिन सियार को भु:खे ही सोने पड़तेपड़ते|बगुला चुपके से अपना पेट भी भर लेता और आकर पानी भी अपनी सुराही में
पीता|सियार बेचारा शाम को भी पानी नहीं पी पाता फिर भी है कि रिश्ते निभाता जा रहा था|एक दिन सियार की मां मेहमान आई और अपने बच्चे को बगुले के साथ पाकर ताज्जुब करने लगी|शिकार के साथ रहते हुए भी बेटा भु:खा है और उसने अपनी भाषा में बच्चे को कहा-अरे!मिंया छोटे शिकार के साथ रहकर भी हम भूःखे क्यूं हैं?क्योंकि हमने अपनी पहचान भूली है|
सियार(बच्चा)-मॉम!मैं कुछ समझा नहीं?
सियार(मॉम)-अरे बच्चा!तु एक मांसाहारी सियार है और तेरा पेट दो-चार मेंढक-मछलियों से तो भरने से रहा|फिर तु इस आभागिन के साथ क्यूं रहते हो?अच्छा होगा मैं इसे अकेले खा लूं|
सियार की अक्ल फिरी और वह भी मॉम के साथ राजी हो गया|
Plan. के मुताबिक सियार ने बहुत सारे बगुलों को पार्टी में आमंत्रित किया और अपने घर का गेट बंद कर खुब मजा मनाया|कई दिनों से भुःखा सियार भी मजे से खाया|सच ही तो कहते हैं मित्रता समानों में ही भली है|

Sunday, 1 February 2015

जैसे को तैसा

                वन में दो गौरैये थे|सब कुछ अच्छा भला चल रहा था,एक दिन मादा गौरैया ने अण्डे दिये उसी दिन दोपहर की चिलचिलाती धूप में एक गजराज ऊधर से गुजरा उसे गौरैये की चहचहाना अच्छा जंचा तो वह पेड़ के नीचे आराम करने खड़ा हुआ|चूंकि धूप से उसकी हालत पतली हो रही थी सो वह गुस्से में घोंसले को ही खिंच कर  गिरा दिया|इससे नन्ही मादा गौरैया बहुत आहत हुई|उसने अपनी दु:ख अपनी सहेली मक्खि से साझा किया और गजराज को मजा चखाने की तरकीब सोचने लगे|साम ढल गया तो मक्खि ने कहा-मेरी मेघनाद नामक मेंढक से दोस्ती है तो कल उससे मिलकर कुछ योजना बनाते हैं अब वे घर वापस हो गये|गौरैये ने दाना चुगना भी छोड़ दिया|
              सबेरे-सबेरे वे दोनों मेंढक से मिले और अपनी दू:ख बताया|मेंढक थोड़ा सोचने के बाद उन्हें निर्देश देते हुए कहा-हमें फौरन मेरे दोस्त कठफोड़वा के घर चलना चाहिए,बाकि बातें मैं वहीं बताऊंगा|
अब वे तेजी से कठफोड़वा के घर को चलने लगे|बिलखती गौरैया और तेजी से रोने लगी|अब वे कठफोड़वा के घर पहुंचे|
मेहमान नवाजी के बाद कठफोड़वा ने मेंढक से ऐसे औचक आने का कारण पूछा|मेंढक उसे समझाने के बाद अपनी योजना बताया-दोपहर को वह थका हारा हाथी पेड़ की छांव में आराम करने आएगा तो तनम-मक्खि उसके कान के पास मधूर तराने निकालना जिससे गज को नींद आ जाए|इतने में कठफोड़वा उसकी आंखो को फोड़ देगा|मैं गहरी खाई की तरफ अपने परिवार को लेकर टर्राने लगूंगा जिससे उस गज को पानी प्यास लगने पर ऊधर पानी होने का भ्रम हो और वह खाई में गिर जाए|
                 अब वे योजना को अमलीजामा पहनाने को तैयार हो गये|दोपहर हुई गज पेड़ के नीचे आराम करने पहुंचा|मक्खि ने उसके कान पर मधूर तराने गाकर उसे सुला दिया|बारी बारी कठफोड़वा की आई तो ऊन्होंने एक-एक कर गज की दोंनों ही आँखें फोड़ दी|जब गज को प्यास लगी तो वह मेंढक की टर्राने को सुन उधर ही गया जिधर खाई था|बाकि क्या हुआ होगा ए तो बच्चा-बच्चा जानता है|अब सभी मित्रों ने योजना के मुताबिक कार्य सफल होने की बधाईयाँ दी और चल पड़े|
मेरे साथ जुड़े रहने के लिए आपका मैं आभारी हुँ|प्लीज कुछ वक्त देकर कमेंट करें यह मेरे लिए  stimulus होगा|

Source: theme of these story is acquired from ",पंचतंत्र की कहानिंयां"

SAVE CHILD

"आज के बच्चे कल के नेता,
यही हमारे भाग्य निर्धाता"

Friday, 30 January 2015

सियार की होशियारी

      यह कथा किवंदितीयों पर आधारित है भले आज हम सब न्यूक्लियर फैमिली जेनरेशन के लोग हैं अपितु कभी-न-कभी तो हमने अपने दादा-दादी,नाना-नानी से कहानी सुनी ही है बस वही कहानी मैं आपसे शेयर कर रहा हूँ|
              नंदनवन में एक गोमु नामक सियार रहता था|वह एक दिन भूख-प्यास से बेहाल हो कर इधर-उधर इस बात की टोह में भटक रहा था कि कहीं कुछ मिले तो अपना पेट भरे|भटकता हुआ वह जंगल के ऐसे भाग में पहुंचा जहां कुछ समय पहले युध्द हुई थी|वहां पर कुछ खांच-खरोच के अलावा एक नगाड़ा उसे पास की झाड़ी पर दिखा|उस वक्त शनै:शनै: हवा चल रही थी जिससे झाड़ी की टहनियां बार-बार नगाड़े से टकरातीं जिससे वह बजने लगता|नजदीक पहुंचते यह विचित्र आवाज बार -बार सुनाई देता|ऐसी आवाज उसने आज पहली दफा सुनी थी|वह मारे भय के कांपने लगा और ठिठक कर खड़े होकर सोचने लगा जानवर की आवाज तो इतनी तेज है फिर जानवर तो भयानक होगा और देखते ही खा जायेगा|वह सोचता रहा कि अब झपट्टा मारे की तब|उसे सूझ नहीं रहा था कि आखिर करे तो क्या करे?उसके मन में विचान आया कि वह दूबक कर निकल ले और प्राण बचने कि खैर मनाऐ|
            वह भागने कि सोच ही रहा था कि उसके मन में विचार आया कि किसी संकट का आभास पाकर झट भाग खड़े होने में होसियारी नहीं है|इसकी छानबीन अवश्य कर लेनी चाहिए|क्योंकि,भय या हर्ष में जो सोच सकता है उसे पछताना तो नहीं पड़ता|
             यह विचार आने पर वह ठान लिया कि वह पता लगाय़ेगा कि आवाज कहां से आ रही है!जी रोक कर वह दबे पांव से नगाड़े की ओर बढ़ा|ध्यान से देखा तो आवाज नगाड़े से आ रही थी|उसकी हिम्मत बढ़ गई वह उसके और समीप पहुंचा|अब उसे कोई सुगबुगाहट नहीं दिखी|फिर क्या वर जान हथेली पर रखकर अपना एक हाथ उस पर जमा लिया|थाप लगने से वही आवाज आई|अब डर नहीं रहा|इतना मोटा व गदराया हुआ जानवर उसकी आगोस में था|जिभ लपलपा कर कहने लगा आज तो जी भर खून पियेगा|
            उसने जैसे-तैसे उस नगाड़े के चमड़े को काट कर छेद बनाया|चमड़ा मोटा और सूखा तो था ही,तना हुआ भी था,इसलिए उसे जोर लगाना पड़ रहा था|अब वह खोल के अंदर इस उम्मीद से घुसा कि अब तो मजे से खायेगा पर ये क्या वह तो फंस गया और चिल्लाने लगा|यह शोर सुन एक शेर पहुंचा और उसका शिकार कर लिया|

Sunday, 18 January 2015

विवेकवाणी 001

   

     रास्ता अपना बनाओ,उसे अपनाओ
        विवेक खेस्स

Saturday, 17 January 2015

एक सलामी-सलामत रहने के लिए

             हर बार की तरह इस बार भी मैं आपबीती लेकर आपके सामने हाजिर हूँ|जीवन मैं कई ऐसे उलझनें मौजूद हैं जिनके पीछे की सच्चाई तलाशना नामुमकीन तो नहीं कहुंगा लेकिन टेढ़ी खीर साबित होती अवश्य लगती है इसमें कोई दो राय नहीं|खैर जो भी हो मैं इस वक्त एक अनसुलझी/रहस्य आपसे शेयर कर रहा हुँ|
                      मैं शाम 6:00 बजे की बस द्वारा अंबिकापुर से बगीचा आ रहा था|बस में Rush की वजह से मुझे cabin की seat मिली|बस छूटने के करीब आधे-पौन घंटे में बस पहाड़ी तक पहुंची|ठंड की मौसम की वजह से सड़क पर काफी सन्नाटा पसरा था|यकीन नहीं हो रहा था कि नेशनल हाईवे पर ट्रैवल कर रहे थे खैर जो भी हो अब आगे बताता हुँ cabin seat पर बैठने की वजह से मैं सामने स्पष्ट तौर पर देख सक रहा था|बस जंगल से होकर गुजरने लगी कि तभी अचानक से हमारी बांयी तरफ से बिल्ली ने बस को क्रोस किया|

ड्राईवर ने तुरंत ही बस रोक दी और बस में light के लिए जलते सारे बल्ब्स ओफ कर दिये और बस भी एक ही झटके में ही रोक दी|  मुझसे ऐसा होना रहा नहीं गया पर मैंने खुद को रोका ,कुछ देर बाद बगल की सीट वाले से कहा-आपने वो सब देखा?
जवाब-हाँ!!बस ऐसे किया जाता है|
अब बस कुछ देर में आगे चल पड़ी|मैं संतोषप्रद जवाब चाहता था सो मैंने घर पहुंचकर पापा से पूछने का मन बना लिया|इतने में एक दूसरी बिल्ली बस को क्रॉस कर गई,इस बार भी ड्राईवर ने वही किया जो last incident में किया था बस इस बार बिल्ली छोटी थी और हमारी बांयी ओर से उसने हमें क्रॉस किया|
                 
घर पहुंचने के बाद मैंने पापा से पूछा यहां भी पहले जैसा ही जवाब मिला|
कारण जो भी पर पापा ने बताया कि ड्राईवर्स  में मान्यता है कि वो लोग सेफ्टी को ध्यान में रखकर ऐसा करते हैं|मैं तो ईस incident को सलामत रहने के लिए एक सलामी कहता हुँ|इस बारे अपनी राय मुझे कमेंट द्वारा दे सकते हैं बेहिचक...
      "रास्ता अपना बनाओ,उसे अपनाओ"
                   विवेक खेस्स

विवेकवाणी

   

AADIWASI CULTURE MEET-04

             भारत के दूरदराज इलाकों से आये महानुभावों की बस दो चिंताएँ निकलकर सामने आईं|
पहली,कहीं हालिया सरकार की हम आदिवासियों के  प्रति उदासीन रवैया "MAKE IN INDIA" के लिए पर्यावरण क्लियरेंस को आसान बनाने के रुप में हावी होती दिखती है|
दूसरी,हम युवा पीढ़ी की WESTERN जीवनशैली की ओर आकर्षित होना|
           रास्ता अपना बनाओ,उसे अपनाओ
                                                           विवेक खेस्स


Saturday, 10 January 2015

कहाँ चली रे

आज की इस कविता में मैं अपने और गांव वाले की व्यथा से परिचित कराऊंगा|कभी खेतों की हरियाली ही नदी की शान थी पर अब ऐसा नहीं|आगे प्रस्तुत है मेरे कलम से-

"ओ मोरे सजना छोड़ के अपनों को कहाँ चली रे,
  ढूंढते यहॉं हर कोई न सही पर मैं तुझे है ढूढ़ूँ||
                   कभी थी साथ तु तो हर दम उत्पात मचाया
                    छोड़ के अब कहाँ चली रे||
पंछी है अकेला तुझे है ढूंढते बिलखता,
उड़ते-उड़ते तेरे उदगम से पर अंत न पाया कहीं
छोड़ के कहाँ?चली रे
               हे नदिया!कभी तेरे जल से कलकल की धून निकलती,
                तो मैं पेड़ के नीचे बैठकर नींद से खुद को कभी रोक
                न पाऊँ रे,
                 कभी तेरे तेज गरजन से पूरा का पूरा इलाका काँपता
                  पर तु अब न रही रे|
                   छोड़ के कहाँ चली रे||
कभी तुझसे गेहूँ के खेत लहलहाते
तो कहीं बागान
पर अब गाय-बैल की प्यास भी न बुझा सकी तु|
छोड़ के कहाँ चली रे?
             तेरे नस मैं दौड़ने वाली बलखाती वह जल शायद गहरे
             सागर में जा मिली|
            पर यह क्या?
            वहाँ भी मुझे जलस्तर नीचे मिली
          कई बिचेस सुखे मिले
तु आखिर गई कहाँ रे?
                  क्या इस सुरज की इतनी हिमाकत जो
                   तुझे पी गया|
                    पर यह क्या?
                     फिर भी वह आग के शोलों से दहक रहा,
                      प्यास उसका अब भी न बुझा|
                      बड़े-बुजुर्ग कहते वह सब तो ठीक है पर
                        छोड़ के तु हमें कहाँ चली रै!
क्या तेरे गोद में बसे शहरों नै तुम्हें पी गया?
क्या तेरे गोद में खेलते 5-10HP के पम्पस की इतनी प्यास
जो यह न समझ सकी कि तेरे बगैर उसका कुछ काम नहीं||
                      सभी है पूछते तेरे बारे में
                     छोड़ के हमें तु कहाँ चली रे???