आज की इस कविता में मैं अपने और गांव वाले की व्यथा से परिचित कराऊंगा|कभी खेतों की हरियाली ही नदी की शान थी पर अब ऐसा नहीं|आगे प्रस्तुत है मेरे कलम से-
"ओ मोरे सजना छोड़ के अपनों को कहाँ चली रे,
ढूंढते यहॉं हर कोई न सही पर मैं तुझे है ढूढ़ूँ||
कभी थी साथ तु तो हर दम उत्पात मचाया
छोड़ के अब कहाँ चली रे||
पंछी है अकेला तुझे है ढूंढते बिलखता,
उड़ते-उड़ते तेरे उदगम से पर अंत न पाया कहीं
छोड़ के कहाँ?चली रे
हे नदिया!कभी तेरे जल से कलकल की धून निकलती,
तो मैं पेड़ के नीचे बैठकर नींद से खुद को कभी रोक
न पाऊँ रे,
कभी तेरे तेज गरजन से पूरा का पूरा इलाका काँपता
पर तु अब न रही रे|
छोड़ के कहाँ चली रे||
कभी तुझसे गेहूँ के खेत लहलहाते
तो कहीं बागान
पर अब गाय-बैल की प्यास भी न बुझा सकी तु|
छोड़ के कहाँ चली रे?
तेरे नस मैं दौड़ने वाली बलखाती वह जल शायद गहरे
सागर में जा मिली|
पर यह क्या?
वहाँ भी मुझे जलस्तर नीचे मिली
कई बिचेस सुखे मिले
तु आखिर गई कहाँ रे?
क्या इस सुरज की इतनी हिमाकत जो
तुझे पी गया|
पर यह क्या?
फिर भी वह आग के शोलों से दहक रहा,
प्यास उसका अब भी न बुझा|
बड़े-बुजुर्ग कहते वह सब तो ठीक है पर
छोड़ के तु हमें कहाँ चली रै!
क्या तेरे गोद में बसे शहरों नै तुम्हें पी गया?
क्या तेरे गोद में खेलते 5-10HP के पम्पस की इतनी प्यास
जो यह न समझ सकी कि तेरे बगैर उसका कुछ काम नहीं||
सभी है पूछते तेरे बारे में
छोड़ के हमें तु कहाँ चली रे???